रविवार, 27 जुलाई 2008

प्यार को नमन करो !

प्यार को नमन करो ! प्यार का चलन करो !
हर जलन का तुम सदा, प्यार से शमन करो !

गोद में किलक रहा, वह किसी का प्यार है
याद में बिलख रहा, वह किसी का प्यार है

राह जो निहारता, वह किसी का प्यार है
जो कभी न हारता, वह किसी का प्यार है

साथ को पुकारता, वह किसी का प्यार है
शूल जो बुहारता, वह किसी का प्यार है

पालकी सजी कभी, प्यार के लिए सजी
बाँसुरी बजी कभी, प्यार के लिए बजी

स्वप्न जो जगे कहीं, प्यार के लिए जगे
प्राण जो ठगे कहीं, प्यार के लिए ठगे

होंठ मुस्कराए तो, एक प्यार के लिए
बेकरार प्राण जो, एक प्यार के लिए

प्यार की ही राह पर, तुम सदा चरण धरो !
प्यार को नमन करो! प्यार का चलन करो !

फूल हैं खिले जिन्हें, प्यार ने परस दिया
दिल मिले कभी तभी, प्यार ने सरस किया

देखते हो तुम कहीं, जिन्दगी हताश है
उसको सिर्फ एक ही, प्यार की तलाश है

अश्रु जो छलक रहे, हैं किसी की आँख में
प्यार के सपन सभी, मिल गए हैं खाक में

दूरियां मिटी कभी, प्यार से मिटी सभी
पीड़ जो झिली कहीं, प्यार से झिली सभी

प्यार के अभाव में, हारती है जिन्दगी
अश्रु आँख में अटल, धारती है जिन्दगी

पैर जब कभी डिगे, प्यार के लिए डिगे
दाग जब कभी लगे, प्यार के लिए लगे

नफरतों के घाव जो, प्यार से उन्हें भरो !
प्यार को नमन करो ! प्यार का चलन करो !

आदमी को आदमी, प्यार ही बना रहा
छाप दिल पे इक अमिट, प्यार ही लगा रहा

जिन्दगी को जिन्दगी, प्यार दे रहा सदा
नाव स्वप्न की यहां, प्यार खे रहा सदा

प्यार से ही जिन्दगी के होठ गीत गा रहे
प्यार से चमन-चमन, फूल मुस्कुरा रहे

प्यार से ही हर तरफ, चाँदनी खिली हुई
प्यार से ही हर दिशा को, रोशनी मिली हुई

कारवां जो चल रहा, चल रहा है प्यार से
दीप जो भी जल रहा, जल रहा है प्यार से

प्यार जब कभी मिटा, गम की आँधियां चली
प्यार जब कभी मिटा, जिन्दगी गयी छली

आदमी के दर्द को, प्यार से सदा हरो !
प्यार को नमन करो ! प्यार का चलन करो !

जिन्दगी की नींव यह, प्यार पर टिकी हुई
प्यार के ही हाथ यह, जिन्दगी बिकी हुई

प्यार गर न दे सके, प्यार मिल न पायेगा
घोर-अंधकार आ, जिन्दगी में छायेगा

प्यार के अभाव में, जीत, जीत है नहीं
प्यार के अभाव में, मीत, मीत है नहीं

प्यार के अभाव में, गीत, गीत है नहीं
प्यार के अभाव में, रीत, रीत है नहीं

प्यार जिसमें है नहीं, जिन्दगी वीरान है
प्यार जिसमें है नहीं, घर नहीं, मसान है

प्यार है जहां, वहां वेद हैं, कुरान है
प्यार ही मनुष्य है, प्यार ही भगवान है

मीत मिल के प्यार का, नित्य आचमन करो !
प्यार को नमन करो ! प्यार का चलन करो !

दायरों से प्यार की, मुक्ति आज चाहिए
हर हृदय में प्यार की, भक्ति आज चाहिए

कौन प्यार के लिए, इस जहां में गैर है
प्यार है जहां, वहां द्वेष है न वैर है

प्यार की नजर में, कौन तुच्छ, कौन है बड़ा
एकता की सरजमीं में, प्यार का निशां गड़ा

गीत होठ-होठ पर, प्यार के जगाओं तुम
पौध प्यार की यहां, हर जगह लगाओ तुम

आग जो घृणा की है, प्यार से बुझाओ तुम
दूर हो गए हैं जो, प्यार से मिलाओ तुम

विष चढ़ा संदेह का, प्यार से उतारो तुम
प्यार ही है जिन्दगी, बस, यही पुकारो तुम

प्यार के लिए जिओ ! प्यार के लिए मरो !
प्यार को नमन करो ! प्यार का चलन करो !
प्यार को नमन करो से

शनिवार, 26 जुलाई 2008

पं.सीताराम महर्षि

-डॉ. अरुण प्रकाश अवस्थी



यह तो मैं ठीक से नहीं कह सकता कि पूज्य संत कवि पं. सीताराम महर्षि से प्रथम परिचय कब हुआ, किन्तु लगभग 25-30 वर्ष अवष्य हो गए होंगे। हां, उनके पवित्र सनिध्य में जब मैं प्रथम बार आया तो मुझे आश्चर्य अवश्य हुआ। आश्चर्य इसलिए हुआ कि आज के भौतिक द्वन्द्व वाले इस युग में भी ऐसे सन्त कवि हैं।
हमारे हिन्दी व राजस्थानी साहित्य में संत कवियों की एक गौरव मण्डित दीर्ध परम्परा है। कबीर, सूर, तुलसी, मीरा दादू आदि महाकवियों ने काव्य का जो शुद्ध सात्विक एवं कुण्ठारहित स्वरूप सृजित किया, वही आज विश्व साहित्य के गरिमामय हीरक मण्डित सर्वोच्च षिखर पर हमारे साहित्य को प्रतिष्ठित किए हुए है। यह स्वीकार करने में रंचमात्र भी अतिरंजना न हो कि श्रद्धेय कविवर श्री महर्षि जी उसी परम्परा की एक मणि है।
उनके साथ अनेक कवि सम्मेलनों में भाग लेने का मुझे सुअवसर प्राप्त हुआ। डॉ. भगवती प्रसाद चौधरी के साथ राजस्थान दर्शन में उनका सानिध्य लगभग 15 दिनों तक मुझे मिला। दुबारा कुम्भ के समय नासिक त्रैयम्बकेस्वर सिरडी, सोमनाथ, नागेश्वर, द्वारका में भी उनका सानिध्य मुझे मिला। उनसे बड़ी अंतरंगता से बातें हुई। मुझे ऐसा लगा कि उन्हें प्रथम संत मानूं या श्रेष्ठ कवि? वस्तुतः उनके दोनों स्वरूपों को परस्पर एक दूसरे से पृथक करना असम्भव है। वे संतों में आदर्श गृहस्थ संत विदेह हैं और कवियों में अकुण्ठ भावों के वैकुण्ठ। उनकी कविता का मूल स्वर मानवता के उच्च आदर्शों से मण्डित है। उनकी अनेक रचनाएं मैंने स्वयं उनके मुख्य से सुनी। उनके अर्थ गाम्भीर्य को थोड़ी थाह पाने के बाद यही कह सकता हूँ कि उनका अर्थ जानने के लिए इस विशेष का ज्ञान होना चाहिए। गोस्वामी तुलसीदास ने ऐसे ही रस विषेष के निष्णात कवियों के विषय में कहा है-
राम-चरित जे सुनत अधाहीं।
रस विशेष जाना तिन्ह नाहीं।।
उनकी रचनाएं तृप्त न करके एक अद्भुत प्यास जगाती हैं। बार-बार सुनने और उनमें अवगाहन करने की अटूट इच्छा होती हैं। उनकी रचनाओं में कहीं भी व्यक्तिगत कुष्ठा कल्पित आत्म वंचना नहीं है। वे शुद्ध मानवीय प्रेम से आप्लावित हैं और आत्मा को परम तत्व से जोड़ती हैं। स्वान्तः सुखाय की विस्तृत भाव भूमि पर आघृत ये रचनाएं आज सर्वजन सुखाय बन गई हैं। उनके उदस्त मानस-सर में जो काव्य के दिव्य परागरस पूरित अरविन्द खिले हैं वे केवल मानव एवं परम सत्ता के लिए ही अणि के योग्य हैं। उन्हें किसी बाद या शिविर से प्रतिबद्ध करना अज्ञान ही होगा।
उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाश में आ चुकी हैं, उनके ही अर्थ सार को लेकर उनपर कुछ लिखने का साहस जुटा सका हूँ। मुझे भली-भाँति स्मरण है कि उनकी एक प्रसिद्ध रचना ‘प्रेम’ पर मैंने गिरीडीह के कवि सम्मेलन में सुनी थी। ‘श्रोताओं की अपार भीड़ थी पर जैसे ही श्री महर्षि जी ने उक्त कविता का पाठ किया अपूर्व सन्नाटा छा गया। लोग ताली बजाना भी भूल गए। सच पूछा जाए तो मैंने आज तक प्रेम पर ऐसी कविता न पढ़ी है और न सुनी ही है। आजकल के रचनाकारों ने प्रेम को उसके उच्च पद से स्खलित कर काम का द्वौवारिक बना दिया हैं। महर्षिजी ने जिस प्रगल्मता से प्रेम की व्याख्या की वह अनुपम है।
उसके पश्चात तो उनसे मेरा हार्दिक सम्बन्ध घनिष्ट से घनिष्टतर होता गया। दो-दो यात्राओं में उनका जो सानिध्य मिला, उससे थोड़ा मेरा संकोच भी न्यून हो गया। वे ऊपर से गम्भीर किन्तु भीतर से एकदम खुले विचारों के लगे। यद्यपि आयु एवं योग्यता में वे मुझसे श्रेष्ठ हैं पर मैं भी उनसे खुल गया। एक प्रकार से उनका मुंह लगा हो गया। हास-परिहास का कोई भी अवसर आता वे चूकते नहीं हैं । मुझे भी हास्य संबंधी चुटकियां सुनाने हेतु यात्रा के मध्य प्रोत्साहित करते रहे। सचमुच ऐसे संत कवि के भीतर एक निश्छल कोमल शिशु विद्यमान हैं।
आज के युग में ऐसे व्यक्तित्व का मिलना असम्भव ही है। घर में रहकर भी विदेह, हम ऐसे चाण्डाल, कवियों की खल मण्डली में रहकर भी संत, अपूर्व विरोधाभास है हम सब प्रिय एवं श्रद्धेय महाकवि पं. सीतारामजी महर्षि। स्वाभिमान एवं आत्म पवित्रता के जीवन्त प्रतीक पर अभिमान का रंचमात्र भी अंश नहीं। एक सफल सिद्ध कवि पर प्रचार की आकांक्षा से कोसों दूर। सचमुच वे एक विरोधाभास हैं। ऐसे संत कवि को समझने के लिए हमें सिन्धु की सीमा हीन गहराई एवं अनन्ताकाश के सीमाहीन विस्तार तथा उनकी पावनता का अनुमान करने के लिए हिम शिखरों के अवाक् शुभ्र सौंदर्य को सामने रखना होता हैं।
ऐसे संत कवि को मेरा शत्-शत् नमन।